Sunday, November 16, 2008

क्या चाहता हे तू मन?

हर लम्हा हर छण
खुद से ये कैसी अन-बन।
अनजाने मौसम के ही जैसा
क्योँ पल मे बदलता हे ये मन.

कभी उम्मीदे जगाता
कभी तकलीफे देता।
एक अकेली कश्ती के जैसा
क्यौं होले होले बहता हे ये मन.

अँधेरे मे सहारा देता
रौशनी मे कही छुप्प जाता।
मोम की बत्ती जैसा
क्योँ जलता हे ये मन.

खुशियों मे दर्द को
दर्द मे खुशियों को
और दूरियों मे नजदीकियों को।
कैसे महसूस कर लेता हे ये मन.

कभी सी++, कभी सी#
कभी बीओ सीओ, कभी एअस्पी जावा,
नयी नयी टेक्नोलॉजी के जैसा
कैसे खुद को कॉन्फिगर करता हे ये मन.

कभी सुलझ जाना
कभी उलझ जाना
क्या कभी तुझे समज पाउँगा
क्या चाहता हे तू मन?
क्या चाहता हे तू मन?

No comments: